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भगवान शिव के अनोखे “अर्धनारीश्वर” अवतार की पौराणिक कथा

भगवान शिव को देवों का देव कहा जाता है। जिस भी भक्त पर इनका आशीर्वाद होता है वह जीवन की हर मुश्किल से पार पा जाता है। भगवान शिव के कई रूप हैं लेकिन इस लेख में हम उनके अर्धनारीश्वर रूप के बारे में बात करेंगे। 

क्यों लिया था भगवान शिव ने अर्धनारीश्वर अवतार

अर्धनारीश्वर भगवान शिव का वह अवतार जिसमें उनका आधा भाग नर का है और बाकी का आधा नारी का। इस स्वरूप को भगवान शिव ने अपनी इच्छा से धारण किया था ताकि वह संसार को बता सकें कि सृष्टि के संचालन के लिए नर और नारी दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। समाज के विकास में दोनों का ही योगदान है। आज हम आपको इस अवतार से जुड़ी पौराणिक कथाओं के बे में बताएँगे।

भगवान शिव के अर्धनारीश्वर अवतार की कथाएँ

पहली कथा

इस अर्धनारीश्वर अवतार के पीछे भी एक पौराणिक कथा है। एक बार भृंगी नाम के एक ऋषि थे जो भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे। उनकी भक्ति और भगवान के ऊपर श्रद्धा इस कदर बढ़ चुकी थी कि वे शिव के सिवा किसी और को नहीं पूजते थे। माता पार्वती को भी शिव जी से अलग समझते हुए उन्होने कभी माँ को नहीं पूजा। एक बार भोले बाबा के ये अनन्य भक्त कैलाश पर्वत पर अपने आराध्य के दर्शन करने गए।

शिव और शक्ति अलग नहीं हैं

वहाँ पहुँचकर उन्होंने एक बहुत ही अजीब हरकत की। वे भगवान शंकर कि परिक्रमा करना चाहते थे लेकिन माता पार्वती की नहीं। इस पर माता पार्वती ने उन्हें समझाया कि शिव और शक्ति अलग – अलग नहीं हैं परंतु जब ऋषि भृंगी नहीं माने तो माता पार्वती और भगवान शिव एकदम पास बैठ गए। यह देखकर भृंगी ऋषि ने सर्प का रूप रख लिया और केवल शिव जी की परिक्रमा करने लगे। तब शिव और पार्वती ने अपने रूपों को मिला लिया, वे एक हो गए और तब जन्म हुआ “अर्धनारीश्वर” अवतार का। हद तो तब हुई जब इस पर भी ऋषि को समझ नहीं आया और वे चूहे का रूप रखकर दोनों को बीच से कुतरकर अलग करने लगे।

माता पार्वती ने ऋषि को समझाया

इस पर दोनों को क्रोध आ गया और तब देवी पार्वती ने ऋषि से कहा कि हर मनुष्य के भीतर प्रकृति का भी भाग होता है जो नारी शक्ति का प्रतीक है। प्रत्येक मनुष्य का शरीर उसकी माता और पिता की देन होता है, जहां व्यक्ति हड्डी और मांसपेशियों को पिता से प्राप्त करता है वहीं रक्त और मांस उसे माता से मिलता है। मैं तुम्हें श्राप देती हूँ कि तुम्हारे शरीर से माँ (नारी) से मिला हुआ भाग अलग हो जाए। श्राप मिलते ही भृंगी ऋषि असहाय होकर गिर पड़े। जब उन्हें एहसास हुआ कि वे अपनी खड़े होने की शक्ति भी खो चुके हैं तब उन्होंने देवी पार्वती से इस अपराध के लिए क्षमा याचना की।

अब क्योंकि माता अपनी संतान का दुख नहीं देख पाती है, इसीलिए पार्वती जी का हृदय भी यह दृश्य और भृंगी की हालत देखकर व्यथित हो उठा। माता ने जब श्राप वापस लेना चाहा तो ऋषि भृंगी ने स्वयं ही मना कर दिया क्योंकि अब वो अपराध बोध से ग्रस्त हो चुके थे। ऋषि को चलने में असमर्थ जान शिव–पार्वती ने उन्हें तीसरा पैर प्रदान कर दिया। इस तरह हुआ था अर्धनारीश्वर रूप का प्राकट्य ताकि संसार को नर और नारी का महत्व समझाया जा सके।

दूसरी कथा

भगवान के अर्धनारीश्वर स्वरूप को लेकर एक और भी पौराणिक मान्यता है। जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की तो उसके कुछ समय बाद उन्हें एहसास हुआ कि यहाँ गति नहीं है इसीलिए यह पूर्ण रूप से विकसित नहीं है। ब्रह्मा जी चिंता में पड़ गए कि जितने जीव-जन्तु मैंने बनाए हैं, इनकी संख्या में वृद्धि कैसे होगी। ब्रह्मा जी की इस दुविधा का निवारण भगवान शिव ने किया, उन्होंने ब्रह्मा जी को मैथुनी सृष्टि निर्माण करने का सुझाव दिया।

अब ब्रह्मा जी शिव जी से मैथुनी सृष्टि का रहस्य समझना चाहते थे। इसे समझाने के लिए भगवान शिव ने अपने शरीर को दो भागों (नर और नारी) में विभक्त कर लिया। और जब ये नर और नारी आधे-आधे साथ में नज़र आए तो यही रूप अर्धनारीश्वर कहलाया। अब शिव की जो शक्ति थी उसने अपने रूप से एक नारी को प्रकट कर ब्रह्मा जी को सौंप दिया। शिव की इस नारी शक्ति शिव ने ही बाद में हिमालय के घर जन्म लेकर शिव से विवाह किया। तभी से इस सृष्टि में मैथुनी परंपरा से विकास का क्रम शुरू हुआ।

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