हिंदू धर्म में जनेऊ सदा ही एक पवित्र धारणा रही है, किंतु आज जनेऊ का विलोप सा हो गया है। जनेऊ धारण अब मात्र रस्म अदायगी बन कर रह गयी है। बच्चों के मुंडन संस्कार के समय, विवाह के समय व यदि घर में पूजन आदि है तो ही जनेऊ कुछ समय तक धारण कर निकाल दिया जाता है। यह परिवर्तन बहुत पहले से नहीं हुआ है अपितु भारत में अंग्रेजों के समय के बाद से हुआ है। अंग्रेज शासकों ने भारतीय शिक्षण पद्धति जिसे गुरुकुल पद्धति भी कहा जाता है का नाश करके जनेऊ धारण करने के आधार पर आघात किया।
जनेऊ धारण मात्र उत्तर भारत नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत में किया जाता है। इसे यज्ञसूत्र, व्रतबंध, ब्रह्मसूत्र, उपनयन आदि नामों से भी जाना जाता है। भारत के अनेक राज्यों में इसके नाम भिन्न है जैसे तेलुगु में इसे जंध्यम, तमिल में पोनल, कन्नड़ में जनिवारा कहते है। जनेऊ धारण करना हिंदू धर्म के 16 संस्कारों में से एक माना गया है। गुरुकुल में प्रवेश करते समय पिता अपने पुत्र को उपनयन संस्कार के समय जनेऊ पहनाते थे।
यह किसी व्यक्ति के जीवन में चरण परिवर्तन का सूचक होता था, जब वह जनेऊ के साथ अपने जीवन में अध्ययन ओर सम्पूर्ण अनुशासन धारण करता था।
लगभग 12 वर्ष की आयु किसी बालक का विद्यारंभ होता है उस समय बालक का मुंडन, पवित्र जल से स्नान व जनेऊ धारण कराया जाता है इसे यज्ञोपवीत कहते है। उपनयन संस्कार में जनेऊ धारण कराया जाता है। उपनयन का अर्थ होता है समीप लाना।
इस के अनेक अर्थ बताए गए हैं जिसके प्रमुख है ईश्वर अथवा गुरु के समीप लाना। जनेऊ को व्यक्ति के बाएँ कंधे के ऊपर और दाई भुजा के नीचे पहनाया जाता है।
यज्ञोपवीत में तीन सूत्र या धागे होते है जो तीन ऋणों का प्रतीक है गुरु ऋण, पित्र ऋण तथा ऋषि ऋण। उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी माना जाता है। यज्ञसूत्र धारण करते समय गायत्री मंत्र का विशेष महत्व है।
इसे पहनते व उतारते समय विशेष मंत्र का उच्चारण करना होता है। प्रति वर्ष जनेऊ बदल दिया जाता है, अन्यथा समय-समय पर इसकी स्वच्छता को ध्यान में रखकर इसे डाला जाता है।
हमारे पूर्वजों ने जितने भी दैविक परम्पराएँ बनायीं है उनका बहुत गहरा अर्थ होता है। वे हमारे जीवन के हर पहलू को लाभ पहुँचती है जैसे आध्यात्मिक, शारीरिक, आर्थिक, मानसिक, सामाजिक आदि।
जनेऊ को मात्र ब्राह्मणों से जोड़ना ग़लत है। हमने जैसा देखा इतनी लाभकारी रीति तो सभी को प्राप्त होनी चाहिए जिससे सम्पूर्ण समाज का कल्याण हो सके। हमारे शास्त्रों में कहा भी ऐसा ही गया है, जिसके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य बालक का 12 वर्ष के पूर्व उपनयन संस्कार हो जाना चाहिये।
किंतु आज विवाह पूर्व मात्र नाम की लिए जनेऊ पहनाया जाता है। हमें हमारी जड़ो से जुड़कर, लाभदायक व समाज का कल्याण करने वाली अपनी धरोहर से जुड़ना ही चाहिए।
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