करवा चौथ संध्या पूजन शुभ मुहूर्त – बुधवार 4 नवंबर 05 बजकर 34 मिनट से शाम 06 बजकर 52 मिनट तक
कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करवा चौथ का व्रत मनया जाता है। करवा चौथ का पर्व मुख्य रुप से उत्तर भारत, राजस्थान और पंजाब के क्षेत्रों में अधिक ही उत्साह रुप से मनाते हुए दिखाई देता है। करवा चौथ के पर्व को अनेक नामों से मनाया जाता है। इस पर्व को करक चतुर्थी और करक चौथ के नाम से मनाया जाता है।
कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है, यह पर्व मुख्य रुप से सौभाग्यवती स्त्रियाँ मनाती हैं। इस पर्व का आरंभ प्रात:काल समय तारों की छाया में होता है, और इसकी समाप्ति चंद्र दर्शन के साथ पूर्ण होती है। करवाचौथ का व्रत श्रद्धा एवं उल्लास के साथ संपन्न होता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार यह पर्व कार्तिक कृष्णपक्ष की चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी के दिन संपन्न होता है। इस दिन किए गए व्रत के शुभ फलों की प्राप्ति सौभाग्य को प्रदान करने वाली होती है।
इस दिन में ही भगवान श्री गणेश संकष्टी चतुर्थी का उत्सव भी मनाया जाता है। इस पर्व के अवसर पर भगवान गणेश जी का पूजन संपन्न होता है। पति की लम्बी आयु और सुखी दांपत्य जीवन की प्राप्ति हेतु श्री विध्नहर्ता गणेश जी की अराधना की जाती है, पूरा दिन व्रत का उद्यापन करते हुए श्री गणेश जी का पूजन होता है।
करवा चौथ के पूजा में प्रात:कल समय तारों की छांव में इस व्रत का आरंभ होता है और फिर निर्जल रहते हुए व्रत का संकल्प लिया जाता है। संपूर्ण दिवस में व्रत के नियमों का ध्यान रखते हुए व्रत का पालन किया जाता है। संध्या के समय पूजा अर्चन अकी जाती है। इस समय पर घर की सुहागन स्त्रियां मिलकर पूजा करती हैं और करवा चौथ की पूजा सुनी जाती है। कुछ स्थानों पर महिलाएं समुहों में बैठ कर पूजा करती हैं ओर कथा सुनती है तो कुछ स्थानों में मंदिर इत्यादि स्थलों पर इस की पूजा की जाती है। व्रत रखे हुए महिलाएं चौथ पूजा के दौरान कथा सुनते हुए एक दूसरे के साथ थालियां फेरती हैं।
संध्या उपासना के बाद रात्रि के समय चंद्रमा का दर्शन किया जाता है। चंद्रमा दर्शन में चंद्रमा को धूप, दीप, गंध इत्यादि द्वारा पूजन करते हुए कच्चे दूध और जल से अर्घ्य दिया जाता है. चंद्रमा पूजन के पश्चात व्रत संपूर्ण होता है।
करवा चौथ कथा के विषय में अनेकों धार्मिक आख्यान उपलब्ध होते हैं। जो कुछ महाभारत काल से ही इस कथा का संबंध दिखाते हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य कथा जो जन मानस में अत्यंत लोकप्रिय रही है जो इस प्रकार है। प्राचीन काल एक साहूकार हुआ करता था उस साहुकार के सात बेटे थे ओर एक कन्या थी। कन्या का नाम वीरवती था सात भाई अपनी इकलोती बहन को बहुत ही लाड प्यार करते थे उन सभी का अपनी बहन पर बहुत स्नेह था।
जब बहन का विवाह हो गया तो वह एक अपने ससुराल आती है और उस समय कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का व्रत भी आ जाता है। बहन अपनी भाभियों के साथ उस दिन व्रत करती है लेकिन भूख के कारण वह व्याकुल हो जाती है भाइयों को अपनी बहन की स्थिति देखी नहीं जाती है ओर वो बहन के लिए किसी दूर स्थान पर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर चलनी की ओट में रख देते हैं जिस कारण वह ऎसा प्रतीत होता है जैसे की चंद्रमा हो।
सभी सातों भाई अपनी बहन को बुला कर कहते हैं की देख तेरा चांद निकल आया है अब तू जल्दी से पूजा करके अपना व्रत पूरा सर सकती है। बहन भाभियों से कहती है की चलो चांद निकल आया है लेकिन भाभियां कहती हैं की ये तेरा चांद है तू ही पूजा कर हमारा चांद तो अभी नहीं आया है, वह कुछ समझ नहीं पाती और भाईयों के द्वारा बनाए हुए नकली चांद की पूजा कर के खाना ग्रहण करने लगती है। जब वह खाने का पहला ग्रास खाती है तो उसे छींक आ जाती है, दूसरे ग्रास में बाल निकल आता है और जैसे ही तीसरा ग्रास खाने लगती है उसके पति की मृ्त्यु का संदेश उसे मिलता है।
पति की मृत्यु का समाचार पाकर बहुत रोती है तब भाभियां उसे बताती हैं की चंद्र पूजन नहीं करने के कारण ऎसा हुआ। व्रत को खंडित करने के कारण ही उसके पति की आयु क्षय हो गयी। वीरवती अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं करती वह पूरे एक साल तक अपने पति की देह के पास बैठ कर उसका ध्यान रखती है। बारह महीने तक प्रत्येक चतुर्थी को व्रत रखती है और जब कार्तिक मास की चतुर्थी आती है तो उस दिन पूरे विधि विधन के साथ चंद्रमा का पूजन करते हुए व्रत का नियम पूरा करती उस के तप के प्रभाव से उसका पति पुन: जीवित हो जाता है और वह सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद पाती है।
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