हिंदू धर्म में रुद्राक्ष का बडा महत्त्व है। इसकी माला सभी मालाओं से सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। तथा इसके जप से मिलने वाला फल भी दुसरे मालाओं के जाप से कई ज्यादा मिलता है।
यह शब्द, दो शब्दों (रुद्र+अक्ष) की संधी से बनता हैं। रुद्र यानि शिव और अक्ष यानि आँखें मतलब की शिव की आंखों से उत्पन्न हुंआ हैं।
पौराणिक ग्रंथो में रुद्राक्ष के विषय मे कई कहानियां पाई गयी हैं। स्कंदपुराण में इसके उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है।
प्राचीन काल में पाताल लोक का शासक मय नामक राजा था। वह बड़ा ही बलशाली,पराक्रमी और अजेय था। एक बार उसके मन में विचित्र अभिलाषा जागी। उसे पाताल लोक के जैसे ही अन्य लोकों पर अपना अधिपत्य जमाना था। अपनी इसी ईच्छा की वजह से उसने मनुष्यों, देवताओं, और ऋषियों आदी पर आक्रमण शुरू कर दिये।
अपने बल के अहंकार में चूर होकर मय राजा ने हिमालय के तीन शृंगो पर तीन पुर बनवा लिये। वे तीनों पुर अलग-अलग धातुओं से निर्मित थे। एक सोने का, दूसरा चांदी का और तीसरा लोहे का बना हुंआ था।
ये तीनों पुर एक तरह से अभेद्य दुर्ग की तरह ही थे और यहीं रहकर असुरों ने देवताओं को बहुत कष्ट पहुंचाये। उन्होंने देवताओं पर अत्याचार कर उनके स्थान जीत लिये और उन्हे सारे अधिकारों से वंचित कर दिया। सारे असुर फिर देवताओं के निवास स्थानों पर रहने लगे। इस तरह अभेद्य त्रिपुर में रहकर असुरोंने तीनों लोकों पर अपना अधिपत्य जमा लिया।
इस प्रकार देवताओं से सारे अधिकार छिन जाने से वह भयभीत व बहुत ही परेशान हो गये। इस संकट के समय में सभी देवगणों ने इस विपत्ती से बाहर आने के लिये आपस में विचार किया। उस वक्त उन्होंने ये निश्चय किया कि हमें इस विकट आपदा से सृष्टी रचयीता ब्रह्मा ही हमें बाहर निकाल सकते हैं और सब देवगण एकनिष्ठ होकर ब्रह्मा जी के पास पहुंचे।
उन सबने मिलकर ब्रह्माजीको संपूर्ण वृत्तान्त सुनाया और कहा कि “आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं, अतः ऐसा कोई उपाय कीजिये की उन बल अहंकारी असुरों से जीतकर पहले की तरह ही अपने स्थान और अधिकारों को प्राप्त कर सके।”
देवगणों के इस भाष्य को सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा कि, ” इस समय त्रिपुरासूर महापराक्रमी हे, काल और भाग्य भी उनका साथ दे रहा हे। इस समय वे सब इतने शक्तिशाली हैं कि मैं भी उन्हे परास्त नहीं कर सकता। इस विकट परिस्थिति में सिर्फ भगवान विष्णु ही हमारी सहायता कर सकते है। हम सबको इस वक्त विष्णु लोक जाना चाहिए। निश्चित ही भगवान विष्णु जी के पास हमारा कल्याण होगा।”
इस प्रकार सारे देवगण और ब्रम्हा जी विष्णु लोक पहुंचे और विष्णु जी की स्तुती कर अपने ऊपर आये संकट का विश्लेषण किया व असूरों से रक्षा किस प्रकार हो सकती हैं इसका भी उपाय मांगा। इस पर भगवान विष्णु जी ने भी असमर्थता प्रकट करते हुये देवगणो से कहा कि “इस विपत्ति से हमें केवल देवाधिदेव भगवान शिव ही छुटकारा पाने का उपाय दे सकते है।”
सारे देवतागण, भगवान विष्णु और ब्रम्हाजी सहित इंद्र आदी देवताओं के साथ भगवान शंकर के पास कैलाश लोक की और चल दिये।
वहां पहुंचते ही भगवान शिवशंकर को सभी ने नमन कर दर्शन कीये और देवगणों ने अपनी आपदा प्रकट की और बताया कि मय नामक राजासुर ने त्रिकुट पर तीन अभेद्य पुर बनवा लिये हैं।उन असूरों ने हमारा सब कुछ छीन लिया, हमें पूरी तरह से परास्त कर दिया है। इसलिये हम आप की शरण में आये हैं, कृपया हमारी सहायता करें देवाधिदेव महादेव।
देवताओं की इस मार्मिक कथा को सुनकर भगवान शंकर ने उन्हे अभय दिया और युद्धसामग्री प्रस्तुत करने को कहा। भगवान शिव की बात सुनकर कुछ ही समय में देवताओं ने युद्ध की तैयारी कर ली।
इस युद्ध के लिये पृथ्वी मंडल को रथ बनाया गया, और रथ के सारथी स्वयम् ब्रम्हाजी थे। उस पर विराजमान होकर सुमेरू पर्वत रुपी धनुष को वृषभ ध्वज भगवान शिव ने धारण कर लिया। प्रभू विष्णु स्वयम् दिव्य बाण बनकर थे। शिवजी ने अपने हाथ में वह बाण ले लिया।
इस प्रकार सभी देवतागण, भगवान विष्णु, ब्रम्हाजी और इंद्र आदी देवताओं सहित देवाधिदेव महादेव हिम शैलेंद्र के शृंगो पर स्थित त्रिपुरासुरों के नगरों के पास पहुच गये। वहां पहुंचते ही शिव जी ने साक्षात् नारायण स्वरूप वह अमोघ बाण को अपने धनुष पर चढाया।
शूलपाणि साधते ही उन असुरो के तीनों पुर ध्वस्त कर दिये । इसी वजह से दानवों में हाहाकार मच गया। त्रिपुर के कुछ नायक दानव गण मारे गये, कुछ भयभीत होकर भागने लगे, कुछ शाराग्नि से जलकर भस्म हो गये। उसी वक्त भगवान शिव शंकर ने अपना रौद्र रूप धारण कर लिया था।
इस प्रकार मय राजासुर और उसके द्वारा रक्षित किये गये त्रिपुरासूरों का नाश हो जाने के बाद अपने रौद्र रूप में ही देवाधिदेव शंकर, सभी देवताओं को साथ लेकर हिमालय पर्वत के एक रमणीय शिखर पर विश्राम करने पहुंचे। युद्ध की थकान मिट जाने पर भगवान रुद्र अति प्रसन्न हुये। विजयी हुये शिवजी हर्षोल्हासित होकर जोर जोर से हसने लगे और उसीवक्त हर्ष में हंसते हंसते भगवान रुद्र के नेत्रों से चार बूँद आंसु गिर पडे़।
उन्हीं चार हर्षाश्रुवो के उस शीतशैल पर्वत पर गीर जाने से चार बीज पैदा हुये। समय बितने के बाद वही बीज बढकर पत्र, पुष्प और फल आदि से हरेभरे हो गये। और इस प्रकार रुद्र के आँखो से निकले अश्रुओं से निर्माण हुये इस वृक्ष को “रुद्राक्ष” के नाम से ही विश्व में जाना गया है.
भगवान रुद्र की आँखो से टपकने के कारण रुद्राक्ष को साक्षात शिव स्वरूप ही माना जाता है। पुराणों में ऐसी मान्यता है कि इसे धारण करने वाला स्वयं शिव को ही धारण करता है। इस विषय में बहुत सारी कथायें मिलती हैं।
किसी समय केरल प्रदेश के एक ग्राम में बहुत ही बुद्धिवान देवदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था। वह धर्मशास्त्रो में पारंगत था।
कुछ समय पश्चात कुसंगती के कारण उसकी मती भ्रमिष्ट हो गई और वह बहुत ही कुविचारी, दुष्ट बन गया।वह सारे गलत कर्मो में आगे रहने लगा। दूसरे लोंगो को लूटना, व्यसनों के अधीन होना, जुआ खेलना, चोरी करना, ग़रीबों पर अत्याचार करना आदि सारे घनिष्ट कर्म करने लगा।
देवदत्त अपने कुसंगति के कारण लोगों को तरह तरह से सताने लगा और इसी वजह से गांव के सारे ग्राम वासी और गांव के मुखिया ने मिलकर उसे गांव से बाहर निकाल दिया। इसीलिये वह दूसरे गांव मे रहने लगा।
वहां पर भी उसके आचरण से देवदत्त विमुख न रह सका। कुछ ही दिनों में उस गांव के लोगों को उसकी कुवीचारी बुद्धि को परख लिया। फलस्वरुप उसे उस गांव से भी बेदखल किया गया।
इस प्रकार ,किसी अन्य गाव में शरण नन मिलने के कारण वो जंगल में रहने चला गया। पर यहां भी देवदत्त के पापकर्मो मे कोई रुकावट नहीं आयी। वो पशु प्राणियों की हत्या कर उन्हें भक्षण करने लगा व अपनी क्षुधा को शांत करता रहा। काफी समय तक वह एक जंगल से दूसरे जंगल भटकता रहा। तब ही अंत: मे उसका शरीर मूर्च्छित हो गया और वो धरती पर गिर पडा। और वहीं उसकी मृत्यू हो गयी।
मृत्यू होने के बाद यमदूत घसिटते हुये उसे यमपुरी ले जाने लगे परंतु जिस जमीन पर देवदत्त गिरा था। वही संयोग से मृत्यू के पूर्व एक रुद्राक्ष का दाना उसके सिर पर लग गया था। तब ही मृत्यु के समय रुद्र के अक्ष कहे जाने वाले इस फूल के सिर पर लगने से देवदत्त को शिवलोक में लाने की आज्ञा शिवशंकर ने शिवदूतों को दे दी थी।
जब देवदत्त को घसिटते हुंए यमदूत यमपुरी ले जा रहे थे तभी शिवदुतो ने उन्हें रोका और उन में बहुत विवाद हुंआ। अंत में युद्ध कर शिवदूत देवदत्त को दिव्यरुप धारी बनाकर शिवलोक में ले गये और वहां पहुंचने पर उसे शिव सानिध्य प्राप्त हुंआ। रुद्राक्ष के माहात्म्य को बताने वाली इसी प्रकार की बहुत सी कहानियां या पुराणों में उपलब्ध हैं।
पर अगर उपर इस कथा से अगर कोई यह निष्कर्ष लगाता है कि पूर्ण जीवनभर पापकर्म भी कर लिये और अंत में मृत्यू के समय हम अगर इसे धारण कर लेंगे तो वह पापों से मुक्त हो जायेंगे, तो यह उनकी भूल होगी।
यह मुक्ती में तभी सहायक हो सकता है, जब मनुष्य रुद्राक्ष धारण करने के साथ ही साथ अच्छा आचरण, सत कर्म, शिवपूजन में श्रद्धापूर्वक मन लगाये, दुष्कर्मो को अपने यत्न से बाहर निकालने का प्रयत्न करें तभी रुद्र के आंखों से बने इस फूल को धारण करने से लाभ हो सकता है।
यह रुद्राक्ष को भगवान शिव का ही एक स्वरूप माना गया है, और यह भी कहा गया है कि घर में इसकी पूजा अर्चना करने से लक्ष्मी का हमेशा वास रहता है। तथा मनुष्य की समृद्धी ही होती है और उसे किसी भी प्रकार की कोई कमी नही राहती है।
जो लोग इसे गले में या हाथ पर धारण करते हैं उन्हें भूत-प्रेत आदि का भय कभी नहीं होता। जो लोग आत्मा का परीक्षण करना चाहते हैं उन्हे भी सफल होने के लिए रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। यह धातू को पुष्ट करता है और रक्तविकारों को नष्ट करता है।
यह फल और फूल दोनों ही है। जो इस धारण करता है वो साक्षात शिवजी को ही धारण करता हैं। कुंडली में मौजूद दोषों को दूर करने में भी यह सहायक है।
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