धर्मो रक्षित रक्षितः
यदि हम धर्म की रक्षा करते है तो वह हमारी रक्षा करता है।
यह श्लोक मनुस्मृति के अध्याय 8 के 15वे श्लोक का एक भाग है जिसका पूर्ण अंश इस प्रकार है –
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोअवधित।। (मनुस्मृति ८/१५)
अर्थात धर्म को क्षति पहुंचाने वाले को धर्म क्षति पहुंचाता है अर्थात उनका नाश कर देता है और रक्षित किया हुआ धर्म ,रक्षक की रक्षा करता है ,इसलिए धर्म की रक्षा सदैव मानव को करनी चाहिए जिससे मानव सभ्यता को कभी कोई नुकसान न पहुँचे।
आपको यह पढ़ते हुए जरूर विचार आया होगा कि क्या यह संभव है की हम धर्म की रक्षा करे तो धर्म हमारी रक्षा करेगा ? अगर यह संभव है तो किस प्रकार संभव है ? इन सब बातो को समझने के लिए सर्वप्रथम हमे यह समझना अति आवश्यक हो जाता है कि धर्म क्या है ?
वैदिक सनातन व्यवस्था में ‘धर्म’ शब्द ‘ऋत’ शब्द पर आधारित है। ऋत वैदिक काल में सुव्यवस्थित संतुलित प्राकृतिक व्यवस्था एवं सिद्धांत को कहते है अर्थात एक ऐसा तत्व जो पूरे ब्रह्माण्ड को धर्म से बांधे रखे या उनको जोड़े रखे।
वैदिक संस्कृति में ऋत का मतलब होता है —अस्तित्व का मूल आधार। ऋत का मतलब होता है—अस्तित्व का गहनतम नियम। ऋत का अर्थ है: ब्रह्मांड की समस्वरता का नियम ; वह नियम जो की सितारों को गतिमान करता है ; वह नियम जिसके द्वारा मौसम आते है और चले जाते, सूर्य उदय होता और अस्त हो जाता, दिन के पीछे रात आती। और मृत्यु चली आती जन्म के पीछे ! मन निर्मित कर लेता है संसार को और अ-मन तुम्हे उसे जानने देता है जो कि है ! ऋत का अर्थ है ब्रह्मांड का नियम , अस्तित्व का अंतस्थल।
ऋत है तुम्हारा अंतरतम अस्तित्व और केवल अंतरतम अस्तित्व तुम्हारा ही नही है , बल्कि अंतरतम अस्तित्व है सभी का —-[संदर्भ स्रोत: ऋतम्भरा — ओशो ( पतंजलि योग सूत्र ) ]
कहा गया है कि ‘ऋत ऋग्वेद के सबसे अहम धार्मिक सिद्धांतों में से एक है’ और ‘हिन्दू धर्म की शुरुआत इसी सिद्धांत की शुरुआत के साथ जुड़ी हुई है’।
इसका ज़िक्र आधुनिक हिन्दू समाज में पहले की तुलना में कम होता है लेकिन इसका धर्म और कर्म के सिद्धांतों से गहरा सम्बन्ध है। अर्थात बहुत गूढ़ व्याख्याओं पर न जाते हुए साधारण शब्दों में कहा जाये तो वेदो में ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , एवं शूद्र को कर्म के आधार पर बांटा गया है अगर आप बताये गए माध्यम से सही- सही कर्म करेंगे तो आपके वही कर्म , धर्म बन जाएंगे और आप धार्मिक कहलाएंगे।
मनुष्य के लिए यही धर्म है।
अब तक आपने जहां भी पढ़ा होगा उसके अनुसार सनातन का अर्थ है – शाश्वत या हमेशा बने रहने वाला , अर्थात जिसका न आदि है न अंत।
यही हम सबकी सबसे बड़ी भूल हुई जो आज बड़े से बड़े धर्म के जानकर भी बड़े गर्व से कहते है की – सनातन धर्म कभी नष्ट नहीं हो सकता है चिरकाल से चलता आ रहा चिरकाल तक चलता रहेगा जबकि वैदिक सनातन धर्म की स्थिति आज आपके समक्ष है या यूँ कहे की आज आपको शायद ही वैदिक सनातन संस्कृति शायद ही कही ही दिखे। दूसरी ओर अगर ऐसा होता तो मनुस्मृति में धर्मो रक्षित रक्षितः कहने की आवश्यकता क्यों हुई ?
जब 1999 में पोप भारत में यह कहते है की वह 21वी सदी तक पूरे एशिया में ईसाई धर्म को पूर्णतया स्थापित कर देंगे तब पूरे जगत की मीडिया बंधु ने इसे साधारण घटना के भांति प्रस्तुत किया और यह जताने की कोशिश की गयी की चर्च का कर्तव्य है सम्पूर्ण विश्व में ईसाई धर्म का प्रचार – प्रसार करना और ऐसा करके वह अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे है।
जब जाकिर नाईक जैसे अतिवादी द्वारा हिन्दुओं का सामूहिक धर्म परिवर्तन कराके उन्हें इस्लाम कुबूल कराने की बात आती है तो मीडिया ऐसे समाचारो को समान्य घटना के तौर पर प्रदर्शित करता है अथवा यह सन्देश देती है कि ऐसी घटनाएं सामान्य है। अन्तोगत्वा इस्लाम का प्रसार तब तक होना चाहिए जब तक सारी मानवता मुसलमान न हो जाये।
लेकिन जब कोई हिन्दू समुदाय हिन्दू धर्म से परे अन्य मजहब के लोगो को पुनः हिन्दू धर्म में प्रतिस्थापित करता है तो देश का यही मीडिया सहसा उत्तेजित हो जाती है और और वह उसे साम्प्रदायिक एवं विभाजनकारी शक्तियां बनाने पर तूल जाती है जो हमारे विविधतापूर्ण ढांचे को अस्त- व्यस्त करके एक असहिष्णु हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहती है।
विकिपीडिआ के अनुसार – “हिन्दू धर्म न होकर यह एक सम्प्रदाय या समुदाय मात्र है ” सम्प्रदाय का अर्थ है ” एक परम्परा को मानने वालो का समूह”
अथर्ववेद की निम्नलिखित ऋचा के अनुसार –
सनातनमेमहुरुताद्य स्यात पुनर्णवः। अहोरात्रे प्र जायेते अन्यो अन्यस्य रूपयोः। ।
अर्थात , उसे (जो सत्य के द्वारा ऊपर तपता है , ज्ञान के द्वारा नीचे जगत को आलोकित अर्थात प्रकाशित करता है अर्थात स्वयं ईश्वर ) सनातन कहते है , वह आज भी नवीन है जैसे की दिन और रात्रि अनन्योन्याश्रित रूप से नित नए उत्पन्न होते हुए भी सनातन है।
हिन्दू धर्म को इसलिए सनातन धर्म कहा जाता है क्योकि यही एकमात्र एक ऐसा धर्म है जो ईश्वर , आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का उचित मार्ग बताता है। मोक्ष का मार्ग इसी धर्म की देन है। मोक्ष से ही आत्म ज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है। एकनिष्ठता , ध्यान और मौन और तप सहित यम – नियम के अभ्यास से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
यहां सनातन का अर्थ आज और कल से नही यहां सनातन का अर्थ है जैसे दिन और रात अनन्योन्याश्रित रूप से नित नए उत्पन्न होते हुए भी सनातन है। उसी प्रकार वैदिक धर्म व्यवस्था में उत्पन्न प्रत्येक व्यक्ति जन्म – मृत्यु के चक्र को पूरा करते हुए मोक्ष तक अर्थात जब तक यह सृष्टि चलेगी तब तक वह धर्म से जुड़ा रहेगा जिसका कोई आदि और अंत नहीं है।
यही सनातन धर्म का परम सत्य है जिसमे हम ईश्वर से प्रार्थना करते है कि –
ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मामृतं गमय।। ॐ शांति शांति शांतिः।। (वृहदारण्य उपनिषद )
अर्थात : हे ईश्वर ! मुझे मेरे कर्मो के माध्यम से असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ।
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। ( ईशोपनिषद्)
अर्थात: सत्य दो धातुओं से मिलकर बना है सत् और तत्। सत का अर्थ है ‘यह’ और तत का अर्थ है ‘वह’। दोनों ही सत्य हैं। अहं ब्रह्मास्मी और तत्वमसि। अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ और तुम ही ब्रह्म हो। यह संपूर्ण जगत ब्रह्ममय है। ब्रह्म पूर्ण है। यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण जगत् की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है। पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होने पर भी ब्रह्म की पूर्णता में कोई न्यूनता नहीं आती। वह शेष रूप में भी पूर्ण ही रहता है। यही सनातन सत्य है।
सनातन धर्म की विशेषता है कि यह विचारों के उच्चता की बात करता है। विश्व में केवल और केवल सनातन धर्म ही है जिसमें कोई धार्मिक कट्टरता नहीं है, नास्तिकता की भी मान्यता है। एक और जहाँ लगभग सभी धर्म बाकियों के धर्मान्तरण की बात करते हैं वहीँ सनातन धर्म का सिद्धांत है: ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’ (ऋग्वेद 9/63/4) अर्थात विश्व के सभी लोगों को श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभाव वाले बनाओ।
वेदों से लेकर बाद के भी किसी ग्रन्थ में ये नहीं लिखा कि सबको सनातन धर्मी या हिन्दू बनाओ। हिंदू प्रार्थनाएं और दृष्टि केवल मानव ही नहीं, अपितु समस्त सृष्टि मात्र के कल्याण, समन्वय और शांति की कामना करती हैं। इसीलिए हिंदू ने अपने को हिंदू नाम भी नहीं दिया। वीर सावरकर के शब्दों में, “आप मुसलमान हो इसलिए मैं हिंदू हूं। अन्यथा मैं तो विश्वमानव हूं।”
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