ज्योतिष विषय एक पराविद्या का विषय है जिसका संबंध लोक – परलोक, आत्मा – परमात्मा, जन्म – मृत्यु, पुण्य – पाप, कर्म – विकर्म, भाग्य – दुर्भाग्य, सुख-दुख वगैरे से बंधा हुआ है
ज्योतिष शास्त्र मे जन्म कुंडली का बहोत ज्यादा महत्व है जो किसी भी जातक के जन्म लेने के साथ ही निर्धारित होती है। जन्म लग्न यानी जातक की जन्म तारीख पर जन्म के स्थल पर जन्म के समय पूर्व दिशा मे उदित होने राशी जो प्रथम भाव मे रखी जाती है जिसे जन्म लग्न से संबोधित करते है। जन्म कुंडली का प्रत्येक भाव जातक के जीवन की तरह तरह के क्षेत्रों में होने वाली घटना जीवन में प्रवेश होते और अपना योगदान देने वाले व्यक्तियों तथा जीवनकाल में पैदा होने वाली विभिन्न परिस्थितियों और अनुभव से जुड़ा है। जन्म कुंडली के बारह भाव समग्र जीवन चक्र का निर्देश करते हैं इनमें लग्न शरीरस्थानीय हैं शेष भाव शरीर से संबंधित वस्तुओं के रूप में ग्राहित हैं। जैसे लग्न (शरीर), धन, सहज (बंधु), सुख, संतान, रिपु, जाया, मृत्यु, धर्म, आय (लाभ) और व्यय (खर्च) ये 12 भावों के स्वरूप हैं।
कोई भी भाव एक दूसरे से संबंध रखते हैं यानी की स्वतंत्र नही है।
इन भावों की स्थापना इस ढंग से की गई है कि मनुष्य के जीवन की संपूर्ण आवश्यकताएँ इन्हीं में समाविष्ट हो जाती हैं।
इन सब में केंद्र स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है इनमें प्रथम (लग्न), चतुर्थ (सुख), सप्तम (स्त्री) और दशम् (व्यापार) इन चार भावों को केंद्र मुख्य कहा गया है।
▼प्रथम भाव जो चतुर्थ और दशम का मेल यानी कि माता-पिता जो हमारे जन्म के सर्जक हैं। धरती और आकाश का मिलन यानी लग्न स्थान है। इन्हीं केंद्रों के दोनों और जीवनसंबंधी अन्य आवश्यकताओं एवं परिणामों को बतलानेवाले स्थान हैं। केंद्र का प्रथम भाव जातक की पहचान (लगन) है जिससे हम रंग, रूप, आकार, कद, आत्मा वगैरे से जानते हैं आत्मा को शरीर मिलता है शरीर की पूर्ति यानी की अन्न, पानी की जरूरत रहती है।
साथ में सब कार्यो को संभालने के लिए कुटुंब की आवश्कता होती है धन से ही कुटुंब का पोषण वगैरे होता है तो तीसरा भाव पराक्रम स्थान है जिससे द्वादश भाव धन कुटुंब का होता है। कुटुंब धन से जुड़े रहे इसलिए जातक पराक्रम करता है यानी साहस करने के लिए उठता हे यानी कि पराक्रम या मेहनत करे तो ही धन कुटुंब की अभिलाषा पूर्ण होती है इसीलिए तीसरे भाव को अभिलाषा का भाव भी कहते हैं।
►केंद्र का चतुर्थ भाव सुख स्थान है सुख की अभिलाषा मनसे आती है चौथे (मुख) के दाहिनी और बंधु और पराक्रम हैं।
चतुर्थ भाव मन का कारक है मन में विचार आने से शोख उत्पन्न होते हैं मन का विचार शोख में बदल जाए तो इंसान पराक्रम करता है चतुर्थ भाव माता का भी है माता का शाब्धिक अर्थ ममता स्नेह और भूमि जो जीवन /जीव को जन्म देती है धारण करती है | किसी भी बात की पूर्ति के लिए विद्या विवेक बुद्धि की आवश्यकता रहेती है | सुख शांति संपत्ति प्राप्त करने के लिए विद्या अभ्यास तथा विवेक की जरूरत रहती है जो पंचम भाव है चतुर्थ की बाईं ओर संतान और विद्या हैं पंचम से षष्ठम भाव रोग शत्रु का है यानी कि उनको भी परिस्थितियों से जितने के लिए विद्या अभ्यास की जरूरत रहती है।
▲केंद्र का सप्तम भाव सप्तम भाव को ध्यान में रखे तो शत्रुओं रोग का सामना तथा जिंदगी में आने वाले मृत्यु तुल्य कष्ट को निभाने के लिए सप्तम भाव यानी कि जीवनसाथी की जरूरत होती है जो समय समय पर साथ दे सके। हमारे जन्म का लक्ष्य प्राप्ति करने के सहायक में सप्तम स्थान होता है, जिसे पति पत्नी का स्थान कहते हैं तदुपरांत मानसिक तथा शारीरिक जरूरतों को समय अनुसार समाज की मर्यादा में रहकर पूर्ण करने के लिए पुरुष और स्त्री का संबंध शादी बिहा जैसे मांगलिक कार्यों के अनुसंधान में किया जाता है जिसे दांपत्य जीवन का सुख कहते हैं।
सुखों के बढ़ोतरी की वजह से मृत्यु से दूर यानी की आयु – जीवन को सलामत कर सकते हैं सप्तम स्थान (स्त्री) के दाहिनी ओर शत्रु और व्याधि हैं, तो बाईं ओर मृत्यु है यानी की मृत्यु तुल्य कष्ट से रक्षा होती है तथा बड़ी बीमारियों या व्याधियों से दूर रह सकते हैं क्योंकि लग्न यानी जातक की खुद की अपूर्णता को सप्तम भाव पूर्ण करता है जैसे शिव पार्वती का पूर्ण शरीर है (एक के माइनस पॉइंट दूसरे के प्लस पॉइंट है दूसरे के प्लस पॉइंट एक के माइनस पॉइंट होते हैं) जो एक दूसरे की अपूर्णता को दूर करते हैं
◄केंद्र का दशम भाव दशम (व्यवसाय) के दाहिनी ओर भाग्य और बाईं ओर आय (लाभ) है। यानी आगे पीछे लाभ तथा भाग्य भाव है भाग्य कर्म और आय तीनो एक दूसरे से जुड़े हुए हैं भाग्य में वही होगा जो कर्म से किया होगा क्योंकि कर्म का द्वादश भाव भाग्य है यानी की दशम भाव कर्म की गति को दर्शाता है जो भाग्य में होगा वही भाग्य के रूप में लाभ या आय के रूप में भी भविष्य में मिलेगा। सारी मनोकामना की पूर्ति के बाद धर्म अर्थ काम मोक्ष…. इंसान को फिर से मोक्ष की कामना रहती है जो द्वादश भाव है यही जीवनचक्र और जन्म कुंडली की बारह भाव की गाथा है।
ज्योतिष शास्त्र और हमारा सनातन धर्म पुनर्जन्म में मानता है जन्मकुंडली निश्चित तौर पर जातक के पुनर्जन्म के संचित पाप-पुण्य के गठरी है और ऋषि – मुनीओ का तो यहां तक मानना है कि मनुष्य के पिछले सात जन्म के पाप और पुण्य का फल प्रत्येक जन्म में साथ आता है एक जन्म के अधूरे कार्य दूसरे जन्म में आगे आते हैं। लग्न से द्वादश भाव मोक्ष की गति का है अगर गति या मोक्ष नहीं हुआ है तो इंसान फिर से अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए जन्म लेकर धरती पर आता है।
श्री शंकराचार्य के शब्दों में
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयापारे पाहि मुरारे॥
भावार्थ : बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन कराने वाले इस संसार से पार जा पाना अत्यन्त कठिन है, यानी कि जीव का मोक्ष नहीं होता है संसार सागर को दुस्तर माना है।
हे कृष्ण मुरारी कृपा करके मेरी इस संसार से रक्षा करें।
By – Astrologer Poojat
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