योग करेंगे तो शरीर भी बलवान बनेगा, हमारे मस्तिष्क का विकास होगा, हमारी इंद्रियों पर हमें संयम आएगा। योग में कभी कोई प्रयत्न बेकार नहीं जाता, और इससे कोई हानि नहीं होती। इसका थोड़ा सा भी अभ्यास जन्म और मृत्यु के सबसे बड़े भय से बचाता है। मनुष्यों को अच्छा स्वास्थ्य चाहिए तो, नशा मुक्त रहकर योग युक्त जीवन जीना चाहिए। जो योग, ध्यान करता है उसके ऊपर चाहे संकट आ जाए तो भी वह विचलित नहीं होता। वो आत्मस्थ,योगस्थ रहता है। और आत्मस्थ रह कर के वो अपने स्वधर्म का प्रमाणिकता से निर्वहन करता है। योग मनुष्य की मानसिक, शारीरिक और आध्यत्मिक उर्जा को बढाता हैं।
व्यक्ति को सब कुछ चाहिए घर, व्यापार, संसार, परिवार यह भी आवश्यक है। लेकिन यह हमारे साधन हैं, साध्य क्या है हमारा ? वह है अपनी आत्मा की पूर्णता को प्राप्त होना और उसका माध्यम है अष्टांग योग।
सनातन संस्कृति वह संस्कृति है जिसमें मनुष्य के परिमार्जन के लिए अष्टांग योग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि जैसे दिव्य नियम दिए गये हैं।
हमारे गुप्त मन में जो नाना व्यवहार होते हैं, उनका हमें गयं नही। मनुष्य की शक्ति अंनत है, वह भौतिकता की सीमा चीरकर आध्यात्मिकता की ऊंचाई में उठती है। हम अपना विकास अवरुद्ध कर देते हैं। नवीन ज्ञान और परा-शक्ति की ओर से आंख मूंद लेते हैं। अपनी शक्तियों,योग्यताओं, विशेषताओं को देखिए।
योगशास्त्र में प्रायोगिक शास्त्र को अधिक महत्त्व पूर्ण प्रयोग और साधना कहा गया है। महर्षी पतंजली ने योगदर्शन में चित्त वृत्तींयों के विरोध हेतु उपाय, क्रियायोग, साधना के मार्ग में आने वाली रुकावटे और उन्हे दूर करने हेतु ध्यानादी प्रकार दिए गये है। वह है योग के आठ अंग और अष्टांग योग। यह आठ अंग मुख्यतः दो विभागों में विभाजे गये है। बहिरंग योग – जिसमे यम, नियम, आसन, प्राणायाम आते है। और अंतरंग योग – जिसमे धारणा, ध्यान, समाधी ये सब आते हैं।
पांचवा अंग हे प्रत्याहार जो की बहिरंग योग से अंतरंग योग को जोडा गया सेतु है। मनुष्य के स्थूल शरीर एवं सूक्ष्म मन का अत्यंत घनिष्ट संबंध है। इसलिये उनका एकत्रित विचार कर शरीर संवर्धन के लिये और मन शुद्धी , मानसिक आरोग्य लाभ हेतु यह यम, नियम आदि साधनों का विश्लेषण किया गया है। यह अंग मनुष्य के अस्तित्व के बाह्यांग का विशेषतः विचार करते हैं|इसलिये इसे बहिरंग योग कहा जाता है।
लयबद्ध श्वसन को योग शास्त्र में अतिशय महत्त्व पूर्ण माना गया है। प्राणायाम योग उपचार में एक प्रमुख साधन है। प्राणायाम के अचूक और नियमित सराव से श्वसनक्षमता बढ जाती है, और इसी वजह से साधक का आयुष्य बढ जाता है। साधक को निरोगी शरीर, स्थिर व प्रसन्न चित्त, दुर्दम्य इच्छाशक्ती और अचूक निर्णयक्षमता प्राप्त होती हैं।
प्रत्याहार मतलब मन और इंद्रियों पर सयंम लाने की आदत ऐसा है। प्रत्याहार के अभ्यास की वजह से इंद्रियों को शांत रखने में सहायता होती है। किसी बिंदु या विषयपर एकाग्रता(focus) साधने की कला यानि धारणा। इस वजह से आंतरिक जागरूकता निर्माण होती है।
मन को विचलित करने वाले सभी विषयों को दुर कर मानसिक ताणतणाव दूर होने में मदद होती है। धारणा दीर्घकाल रहने से ही ध्यान हो पाता है। साधक के संपूर्ण मानसिक रचना में सुयोग्य बदल करने की क्षमता ध्यान में होती है। इसलिये इसे बहुत ही आवश्यक माना जाता है। जब ध्यान में सब तरह के व्यत्यय उत्पन्न होना रुक जाते है और दीर्घकाल ध्यान लग पाता है। तब ही समाधि का अनुभव मिलता है। यह योग साधना में आखिरी अंग है। समाधि अवस्था यह भी एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अनुभूती है। जो की आसानी से साध्य नहीं होती।
मन से भी सूक्ष्म स्वरूप में स्थित आत्मा। शरीर और मन इनके दुहेरी कवच के अंदर सुरक्षितता से, अव्यक्त स्वरूप में वास करता है। जैसे की मंदिर में स्थित शिव लिंग की तरह ही। इस अव्यक्त अतिसूक्ष्म, शिवलिंग स्वरूप आत्मा की उन्नती हेतु धारणा, ध्यान और समाधि यह तीन साधन बडे महत्त्वपूर्ण हे। हमे ऐसा लगता है की, आरोग्यप्राप्ती के लिये सिर्फ योगासने, प्राणायाम और ध्यान ही योगाभ्यास है। इसी गलत समज की वजह से बहुत बार वह लोग गलत तरह से अवलंब करते हैं और बहुत से संकटो का सामना करना पडता है।
हर साधक को जीवन की योग्य दिशा दिखाने वाले इस अष्टांग मार्ग का अभ्यास करने से| हमे व्याधीरहित जीवन जीने हेतु योग्य सहायता मिलती है।
जो अष्टांग योग का पालन करते हैं उनके भगवद् गीता में दिए गये।ज्ञान योग,भक्ति योग,कर्मयोग,आत्मसंयम योग,कर्मसन्यास योग,राजयोग, विश्वपुरुषोत्तम योग,मोक्ष सन्यास योग सिद्ध हो जाते है।अष्टांग योग की साधना से सारे योग सिद्ध हो जाते हैं। साधन हमारे सिद्ध हो जाते हैं, हमें साध्य मिल जाता है। हम अहिंसा में, सत्य में, अपरिग्रह में प्रतिष्ठित हो जाते हैं।
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