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कोर्णाक मंदिर -भारत की एक अलौकिक विरासत

जब आप मंदिरो के उत्कृष्ट नमूनों के बारे में बात करते है तो आपके जेहन में एक मंदिर का दृश्य जरूर सामने आता है , वह है ओड़िसा स्थित कोर्णाक का सूर्य मंदिर। जो अपने अंदर कला एवं संस्कृति का अद्भुत संगम अपने आप में समेटे हुए है। जब आप इस मंदिर में दर्शन के लिए पहुंचते है तो आप यहां की अद्भुत छटा एवं अद्वितीय शैली को निहारते नहीं थकते है। आपका आपके पूर्वजो के प्रति श्रद्धा और बढ़ जाती है। भुवनेश्वर और जगन्नाथ पुरी के मध्य स्थित इस मंदिर का इतिहास करीब ८०० वर्ष पुराना है। इस जगह आकर आपको विज्ञानं के शाश्वत नियमो एवं ८०० वर्ष पूर्व संस्कृति और मानव ज्ञान के मध्य अद्भुत संगम देखने को प्राप्त होगा।

आप वहां के अद्भुत वास्तुकला एवं कला की ऐसी विहंगम रचना का अवलोकन करते है तो पाते है कि उस समय बिजली और वाहन के उपागम एवं साधन न होने के बावजूद भी भारत के महामानवों (महामानव इसलिए की ऐसी अद्भुत संरचना का निर्माण किसी साधारण मनुष्य के वश में नहीं ) ने कोर्णाक स्थित सूर्य मंदिर जैसी रचना स्थापित कर दी। उनकी कला और मेधा को देखकर मन ही मन उनको प्रणाम करने का मन करता है।

अर्थ एवं इतिहास

कोर्णाक शब्द संस्कृत से लिया गया है। कोर्णाक शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – कोण और अर्क जिसका अर्थ होता है सूर्य के एक विशिष्ट कोण पर एक मंदिर की स्थापना। ओडिसा के समुद्र तट पर अनादिकाल से एक प्रमुख बंदरगाह स्थित था। इसका निर्माण एवं स्थापना गंग वंश के राजा श्री नरसिंघदेव प्रथम द्वारा कराया गया था। 1984 में इस मंदिर की अद्भुत कला एवं वास्तुकला एवं इसकी महती महत्वा को देखते हुए यूनेस्को द्वारा इस मंदिर को विश्व विरासत घोषित किया गया। सूर्योदय के बाद एक समय विशेष पर सूर्य की किरणे ख़ास कोण से मंदिर के गर्भगृह को अपने प्रकाश पुंज से आलोकित कर देती थी , जिसकी वजह से इस मंदिर का नाम कोर्णाक रखा गया।

मंदिर की संरचना

लगभग १२वीं और १३वीं शताब्दी के मध्य निर्मित इस अति विशाल मंदिर की शिल्प कला अपने आप में एक इतिहास समेटे हुए है। यह मंदिर कलिंग शैली में निर्मित है। इस मंदिर में भगवान सूर्य को रथ पर बैठे हुए दिखाया गया है। पूरे मंदिर को १२ जोड़ी चक्रो के साथ ७ घोड़ों को इस मंदिर स्थल को खींचते हुए प्रदर्शित किया गया है। पत्थरों पर आपको उत्कृष्ट नक़्क़ाशी की झलक देखने को मिलेगी। १२ चक्र इसमें साल के १२ महीनों को प्रदर्शित करते है तथा इन १२ चक्रो में प्रत्येक चक्रो में ८ तीलियाँ है, जो दिन के ८ पहरों को प्रदर्शित करती है।

वर्तमान समय में ७ घोड़ो में से मात्र १ घोडा बचा हुआ है। पूर्व दिशा से उगते हुए सूर्य के साथ यह मंदिर अपनी भव्यता को समेटे इस कदर खड़ा हो उठता है , मानो जैसे अँधेरी काली रात के बाद लालिमा युक्त सुबह की पहली किरण पत्ती पर पड़ी ओस की बूंदो पर पड़ती है।

यह मंदिर ३ मंडपों से मिलकर बना हुआ है। जिसमें से २ मंडप ढह गए है। इस मंदिर के गर्भ -गृह में भगवान सूर्य की तीन प्रतिमाएं अवस्थित है – बाल्यावस्था (जिसकी ऊंचाई ८ फ़ीट ), युवावस्था ( जिसकी ऊंचाई ९.५ फ़ीट ) और प्रौढ़ावस्था ( जिसकी ऊंचाई ३.५ फ़ीट )

इसके मुख्य द्वार पर दो शेरों को हाथियों पर हमला करते हुए तथा रक्षा करते हुए दिखाया गया है। मंदिर के दक्षिण द्वार पर २ सुसज्जित घोड़े है जिन्हे ओड़िसा सरकार ने अपने राजकीय चिन्ह के रूप में दर्जा दिया है। इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर नट मंदिर अवस्थित है। इस स्थान पर नर्तकियां अपने नृत्य के द्वारा भगवान सूर्य को अर्पण किया करती थी। मंदिर के दीवारों पर तरह तरह की कामुक आकृतियाँ उकेरी गयी है, ऐसा माना जाता है कि वो कामसूत्र से ली गयी है।

प्रचलित किवदंतिया

यह स्थान देखने में जितना ही रमणीय लगता है उतना ही कोर्णाक का सूर्य मंदिर अपने आप में कई रहस्यो को समेटे हुए है। ऐसा माना जाता है की इस मंदिर के गर्भ गृह में प्रमुख वास्तुकार के पुत्र ने आत्महत्या कर ली थी , जिसकी वजह से इस मंदिर में उसके बाद से कभी भी पूजा – अर्चना नहीं हुई है।

कई कथाओ के अनुसार सूर्य मंदिर के शीर्ष शिला पर एक बहुत बड़े आकार का चुंबकीय पत्थर रखा हुआ था , जो इस मंदिर के लिए एक केंद्रीय शिला के रूप में कार्य कर रहा था। ऐसा माना जाता था जब व्यापारी मंदिर के निकट समुद्र से होकर गुजरते थे तो इस पत्थर की चुंबकीय प्रभाव की वजह से उनका यंत्र सही से काम नहीं करता था ,और वह मंदिर की तरफ खींचे चले आते। इससे बचने के लिए नाविक इस पत्थर को उखाड़ कर ले गए। जिसकी वजह से इस मंदिर की आधार शिला डगमगा गयी और यह मंदिर धीरे धीरे विंध्वस हो गया।

वैदिक शास्त्र के वास्तु शास्त्र की शाखा के अनुसार इस मंदिर की वास्तु दोष के कारण ही यह मंदिर स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना होने के बावजूद भी ८०० वर्ष के अंदर ही विंध्वस के कगार पर आ पंहुचा। वास्तु शास्त्र के अनुसार मंदिर के प्रांगण में दक्षिण – पूर्व दिशा में एक कुआँ है जो वास्तु शास्त्र के अनुरूप नहीं है , मंदिर के गर्भगृह के पूर्वी द्वार पर एक नृत्यशाला है , जिसकी वजह से पूर्वी द्वार अवरुद्ध हो गया है। मंदिर का निर्माण रथ आकृति होने से पूर्व दिशा, एवं दक्षिण – पूर्व एवं उत्तर – पूर्व दिशा खंडित हो गए। इस लिए यह मंदिर शिल्प कला का अद्भुत नगीना होने के बावजूद दिन-प्रतिदिन क्षीण होता जा रहा है।

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