नक्षत्र, चंद्रमा के पथ में पड़ने वाले तारों का ऐसा समूह है जो कि सौर जगत् के भीतर नहीं है। इनकी कुल संख्या 27 है। पुराणों के अनुसार, यह सभी दक्ष प्रजापति की पुत्रियाँ है। इन सभी का विवाह सोम अर्थात् चंद्रमा के साथ सम्पन्न हुआ था। इन सब में से चंद्रमा को रोहिणी सबसे प्रिय थ। फलतः चंद्रमा को शापग्रस्त भी होना पड़ा था। नक्षत्रों का हमारे जीवन में महत्त्व वैदिक काल से ही रहा है।
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, ‘नक्षत्र’ शब्द का अर्थ है न + क्षत्र अर्थात् ‘शक्तिहीन’।
‘निरूक्त’ में इसकी उत्पत्ति ‘नक्ष्’ अर्थात् ‘प्राप्त करना’ धातु से मानी है। ‘नक्त’ अर्थात् ‘रात्रि’ और ‘त्र’ अर्थात् ‘संरक्षक’। ‘लाट्यायन’ और ‘निदान सूत्र’ में महीने में 27 दिन माने गए हैं। 12 महीने का एक वर्ष है। एक वर्ष में 324 दिन माने गए हैं। नाक्षत्र वर्ष में एक महीना और जुड़ जाने से 354 दिन होते हैं। ‘निदान सूत्र’ ने सूर्य वर्ष में 360 दिन गिने हैं। इसका कारण सूर्य का प्रत्येक नक्षत्र के लिए 13 दिन बिताना है। इस तरह 13 x 27 = 360 होते हैं। चंद्रमा का नक्षत्रों से मिलन ‘नक्षत्र योग’ और ज्योतिष को ‘नक्षत्र विद्या’ कहा जाता है। अयोग्य ज्योतिषी को वराहमिहिर ने ‘नक्षत्र सूचक’ कहा है।
भारतीय हिन्दू संस्कृति में नक्षत्रों की गणना आदिकाल से की जाती है। अथर्ववेद, तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण के अनुसार आकाश मंडल में 27 नक्षत्र और ‘अभिजित’ को मिलाकर कुल 28 नक्षत्र हैं।
वैदिक साहित्य विशेष रूप से ऋग्वेद में सभी दिन – रात एवं मुहूर्त को शुभ माना जाता है।
वाजसनेय संहिता का भी मानना है कि समस्त काल उस विराट पुरुष से ही उत्पन्न हुए हैं, इसीलिए सभी ‘काल’ पवित्र हैं, वैदिक ज्योतिष नक्षत्रों पर आधारित हैं।
ऋग्वेद में नक्षत्र उन लोकों को कहा गया है, जिसका क्षय नहीं होता।
यजुर्वेद में नक्षत्रों को चंद्र की अप्सराएँ तथा ईश्वर का रूप व अलंकार कहा गया है।
तैत्तरीय ब्राह्मण इन्हें देवताओं का गृह मानता है। वास्तविकता तो यह है कि वैदिक साहित्य में सभी नक्षत्र शुभत्व के प्रतीक हैं।
नक्षत्र का सिद्धांत भारतीय वैदिक ज्योतिष में पाया जाता है। यह पद्धति संसार की अन्य प्रचलित ज्योतिष पद्धतियों से अधिक सटीक व अचूक मानी जाती है। आकाश में चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर अपनी कक्षा पर चलता हुआ 27.3 दिन में पृथ्वी की एक परिक्रमा पूरी करता है। इस प्रकार एक मासिक चक्र में आकाश में जिन मुख्य सितारों के समूहों के बीच से चन्द्रमा गुजरता है, चन्द्रमा व सितारों के समूह के उसी संयोग को नक्षत्र कहा जाता है। चन्द्रमा की 360˚ की एक परिक्रमा के पथ पर लगभग 27 विभिन्न तारा-समूह बनते हैं, आकाश में तारों के यही विभाजित समूह नक्षत्र या तारामंडल के नाम से जाने जाते हैं। इन 27 नक्षत्रों में चन्द्रमा प्रत्येक नक्षत्र की 13˚20’ की परिक्रमा अपनी कक्षा में चलता हुआ लगभग एक दिन में पूरी करता है। प्रत्येक नक्षत्र एक विशेष तारामंडल या तारों के एक समूह का प्रतिनिधी होता है। [1]
एक राशि में 2.25 नक्षत्र आया है, इसीलिए एक नक्षत्र को 4 चरणों में बाँटा गया है और एक राशि को 9 चरण प्राप्त हुए हैं। 12 राशियों को 108 चरणों में विभक्त कर दिया, यही ‘नवांश’ कहलाए तथा 108 की संख्या के शुभत्व का आधार भी यही ‘नक्षण-चरण’ विभाजन माना जाता है।
आसमान के 12 भागों में बंटवारा कर देने के बाद भी ऋषि मुनियों ने इसके और सूक्ष्म अध्ययन के लिए इसे 27 भागों में बांटा , जिससे 13 डिग्री 20 मिनट का एक एक नक्षत्र निकला। आकाश में चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर अपनी कक्षा पर चलता हुआ 27.3 दिन में पृथ्वी की एक परिक्रमा पूरी करता है, इस तरह चंद्रमा प्रतिदिन एक नक्षत्र को पार करता है। किसी व्यक्ति का जन्म नक्षत्र वही होता है , जहां उसके जन्म के समय चंद्रमा होता है। ऋषि मुनि ने व्यक्ति के जन्म के नक्षत्र को बहुत महत्व दिया था , और इसके अध्ययन के लिए हर नक्षत्र के प्रत्येक चरण के लिए अलग अलग ‘अक्षर’ रखे थे। बच्चे के नाम में पहला अक्षर नक्षत्र का ही हुआ करता था, जिससे एक नक्षत्र के बच्चे को बडे होने के बाद भी अलग किया जा सकता था। शायद बडे स्तर पर रिसर्च के लिए ऋषि मुनियों ने यह परंपरा शुरू की हो।
0 डिग्री से लेकर 360 डिग्री तक सारे नक्षत्रों का नामकरण इस प्रकार किया गया है- अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मॄगशिरा, आद्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेशा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती। अधिक सूक्ष्म अध्ययन के लिए एक एक नक्षत्र को पुन: चार चार चरणों में बांटा गया है। चूंकि राशि बारह हैं और नक्षत्र 27 और सबके चार चार चरण। इसलिए एक राशि के अंतर्गत किन्ही तीन नक्षत्र के 9 चरण आ जाते हैं। विवाह के समय जन्म कुंडली मिलान के लिए वर और वधू के जन्म नक्षत्र का ही सबसे अधिक महत्व होता है।
आकाश में चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर अपनी कक्षा में भ्रमण करता हुआ 27.3 दिनों में परिक्रमा पूर्ण करता है। इस प्रकार एक मासिक चक्र में आकाशमंडल में जिन मुख्य तारों के समूहों से चन्द्रमा गुजरता है, चन्द्रमा तथा तारों के उसी संयोग को नक्षत्र कहा जाता है। ज्योतिष में इन 27 नक्षत्रों को मूल, पंचक, ध्रुव, चर, मिश्र, अधोमुख, उर्ध्वमुख, दग्ध और तिर्यंड मुख आदि नामों से जाना जाता है। इनमें से आश्विनी, ज्येष्ठा, आश्लेषा, मघा, मूल और रेवती, इन छ: नक्षत्रों को ‘मूल संज्ञक’ या ‘गंडमूल नक्षत्र’ कहा जाता है।
यह संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है- न क्षरति, न सरति इति नक्षत्र अर्थात् न हिलने वाला, न चलने वाला। जो स्थिर हो। ग्रहों एवं नक्षत्रों में यही प्रमुख भेद है कि ग्रह तो भ्रमणशील हैं और नक्षत्र स्थिर भारतीय ज्योतिष में राशि-पथ एक स्थिर नक्षत्र से प्रारंभ होता है इसीलिए .नक्षत्र वृत.कहलाता है जबकि पाश्चात्य ज्योतिष में चल–वृत का प्रचलन है। राशिपथ एक अण्डाकार वृत जैसा है जो 360° डिग्री का है। इन 360 अंशों को 12 समान भागों मे बांटा गया है और प्रत्येक 30 डिग्री के एक भाग को ( राशि) कहा गया है।
निरुक्त – शब्दकोश के अनुसार- ‘नक्षत्र’ आकाश में तारा-समूह को कहते हैं। साधारणतः यह चंद्रमा के पथ से जुडे हैं, किंतु किसी भी तारा समूह को नक्षत्र कहना उचित है। ऋग्वेद में एक स्थान पर सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है, अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य है, नक्षत्रों की विस्तृत जानकारी अर्थववेद, तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण और वेदांग ज्योतिष में मिलती है। इसके अनुसार 27 नक्षत्रों और अभिजित का उल्लेख विभिन्न वेद, पुराण व उपनिषद में मिलता है। ग्रह और नक्षत्रों के आधार पर ही शुभ और अशुभ का निर्णय होता रहा है।
पुराणों के अनुसार विभिन्न नक्षत्रों में भिन्न भिन्न वस्तुओं का दान करने से अत्यन्त पुण्य तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है। रोहिणी नक्षत्र में घी,दूध,रत्न का; मृगशिरा में वत्स सहित गाय का, आर्द्रा में खिचड़ी का, हस्त में हाथी और रथ का; अनुराधा में उत्तरीय सहित वस्त्र का; पूर्वाषाढ़ा में दही और साने हुए सत्तू का बर्तन समेत; रेवती में कांसे का और उत्तरा भाद्रपद में मांस का दान करने का नियम है।
अलग अलग नक्षत्रों में विभिन्न देवताओं आदि के पूजन का विधान है- अश्विनी में अश्विनी कुमारों का; भरणी में यम का; कृतिका में अग्नि का;आर्द्रा में शिव का; पुनर्वसु में अदिति का; पुष्य में बृहस्पति का; श्लेषा में सर्प का; मघा में पितरों का; पूर्वा फाल्गुनी में भग का, उत्तरा फाल्गुनी में अर्यमा का; हस्त में सूर्य का; चित्रा में इन्द्र का; अनुराधा में मित्र का; ज्येष्ठा में इन्द्र का; मूल में राक्षसों का; पूर्वाषाढ़ा में जल का; उत्तराषाढ़ा में विश्वेदेवों का; श्रवण में विष्णु का; धनिष्ठा में वसु का; शतभिषा में वरुण का; पूर्वा भाद्रपद में अजैकपात का; उत्तरा भाद्रपद में अहिर्बुध्य का और रेवती में पूषा का व्रत और पूजन किया जाता है। प्राचीन काल से इन व्रतों को आरोग्य, आयुवृध्दि और सुखसम्मान कारक बताया जाता है|
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