वर्तमान समय में , मनुष्य सोने से पूर्व कई ऐसी क्रियाएं करता है, जिससे उसे सोने में दिक्कत का सामना करना पड़ता है। यदि उन कार्यों के बीच अगर भगवान का स्मरण भी हो, तब निद्रा में सामना होने वाले अनेक बाधाओं पर विजय प्राप्त हो सकता है । इस लेख के द्वारा, हम समझेंगे तथा अपने जीवनशैली में उपयोग करने का प्रयत्न कर सकते हैं।
जिस प्रकार सो कर उठने के पश्चात के लिए वेदो में “सौरसूक्त” का जिक्र किया गया है, ठीक उसी प्रकार रात्रि में सोने से पहले के लिए भी “रात्रिसूक्त” का उल्लेख किया गया है इसको योगनिद्रा भी कहा जाता है।
वेदों में कई देवी – देविताओं का ज़िक्र मिलता उसमें से एक देवी का स्वरुप “निद्रा देवी” का भी है। निद्रा देवी को “नींद की देवी” माना जाता है। जब आप बिस्तर पर सोने के लिए जाये तो उसके पहले रात्रि सूक्त का उच्चारण तीन बार अवश्य करे इससे आपको बहुत ही जल्द सुखदाई निद्रा की अनुभूति होगी।
या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।
– श्रीदुर्गासप्तशती, अध्याय 5 , श्लोक 16
जो देवी प्रत्येक प्राणि मात्र में निद्रा के रूप में विद्यमान हैं, उन्हें त्रिवार नमस्कार है। यह श्लोक बोलते रहें । इससे शनैः-शनैः विचार चक्र रुक जाते हैं और लय लग जाती है तथा दस – पंद्रह मिनटों में निद्राधीन हो जाते हैं।
रामं स्कन्दं हनूमन्तं वैनतेयं वृकोदरम् ।
शयने यः स्मरेन्नित्यं दुःस्वप्नस्तस्य नश्यति ।।
सोते समय मनुष्य द्वारा श्रीराम, स्कंद अर्थात कार्तिकेय, हनुमान, गरुड एवं भीम का स्मरण करने पर उसके दुःस्वप्नों का नाश होता है।
सोने से पूर्व मनःपूर्वक प्रार्थना करें, ‘हे ईश्वर, दान यही दीजिए, आपका विस्मरण कभी न हो ।’
साधारण रूप से प्रयास रहित आराम योग निद्रा द्वारा किसी भी योगासन क्रम के बाद आवश्यक हैं।
योगासन शरीर को गरमाहट देता हैं और शरीर को शांत करता हैं।
ऊँ विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्।
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजस: प्रभु:।। 1।।
अर्थ – जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज:स्वरुप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रा देवी की भगवान ब्रह्मा स्तुति करने लगे।
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कार: स्वरात्मिका।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता।। 2।।
अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषत:।
त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा।। 3।।
अर्थ – देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्ही स्वधा और तुम्ही वषटकार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरुप हैं। तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार – इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो तथा इन मात्राओं के अतिरिक्त जो विन्दुरुपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेष रुप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो। देवि! तुम्ही संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो।
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्।
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा।।4।।
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने।
तथा संहृतिरुपान्ते जगतोsस्य जगन्मये।।5।।
अर्थ – देवि! तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। अर्थ – जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालनकाल में स्थिति रूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।
महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृति:।
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी।।6।।
अर्थ – तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो।
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा।।7।।
अर्थ – तुम्हीं तीनो गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो।
त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्ति: क्षान्तिरेव च।।8।
अर्थ – तुम्हीं श्री, तुम्ही ईश्वरी, तुम्ही ह्री और तुम्ही बोधस्वरुपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो।
खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणि तथा।
शंखिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा।।9।।
अर्थ – तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररुपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ – ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं।
सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी।।10।।
अर्थ – तुम सौम्य और सौम्यतर हो – इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर – सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्ही हो।
यच्च किंचित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके।
तस्य सर्वस्य या शक्ति: सा त्वं किं स्तूयसे तदा।।11।।
अर्थ – सर्वस्वरुपे देवि! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो। ऎसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है?
यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत्।
सोsपि निद्रावशं नीत: कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वर:।।12।।
अर्थ – जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है?
विष्णु: शरीरग्रहणमहमीशान एव च।
कारितास्ते यतोsतस्त्वां क: स्तोतुं शक्तिमान् भवेत्।।13।।
अर्थ – मुझको, भगवान शंकर को तथा भगवान विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है। अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है?
सा त्वमित्थं प्रभावै: स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता।
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ।।14।।
प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु।
बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ।।15।।
अर्थ – देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो। ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इन को मोह में डाल दो और जगदीश्वर भगवान विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो।
योगनिद्रा के जरिये धीरे-धीरे आपका मन शांत होता है और आपके जीवन पर भी इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसलिए योगनिद्रा आज के दौर मे बहुत जरूरी है।
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