शास्त्रो में शनि देव को न्यायाधीश की उपाधि से जाना जाता है, जिनके पास हमारे सभी कर्मों का लेखा-जोखा रहता है। वह हर व्यक्ति को उसके कर्मों का फल अवश्य देते हैं। धार्मिक परंपराओं में बताया गया है कि ज्येष्ठ मास की अमावस्या के दिन शनि देव का जन्म हुआ था। इस अमावस्या को ही महिलाएं अपने पति की दीर्घायु का व्रत रखती हैं और बड़ अमावस्या का त्योहार मनाती हैं। आइये जानते है शनि देव की जन्म की पौराणिक कथा और उनका महत्व।
शनि देव जन्म कथा अनुसार शनि देव को भगवान सूर्य और उनकी पत्नी स्वर्णा की संतान माना जाता है। वैसे तो 9 ग्रहों के परिवार में इन्हें सबसे क्रूर ग्रह माना जाता है। लेकिन वास्तव में यह न्याय और कर्मों के देवता हैं। यदि आप किसी का बुरा नहीं सोचते और किसी के साथ धोखा-धड़ी नहीं करते और किसी पर कोई अत्याचार नहीं करते यानी किसी भी बुरे काम में नहीं हैं तो आपको शनि से घबराने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे लोगों का बुरा शनि महाराज नहीं करते।
फ़लित ज्योतिष के शास्त्रो में शनि को अनेक नामों से सम्बोधित किया गया है, जैसे सूर्य-पुत्र, मन्दगामी और शनिश्चर आदि। शनि के नक्षत्र हैं, पुष्य, अनुराधा, और उत्तराभाद्रपद। यह दो राशियों मकर और कुम्भ का स्वामी है। तुला राशि में 20 अंश पर शनि परमोच्च है और मेष राशि के 20 अंश पर परमनीच है। नीलम शनि का रत्न है।शनि की तीसरी, सातवीं, और दसवीं दृष्टि मानी जाती है। शनि सूर्य, चन्द्र, मंगल का शत्रु, बुध, शुक्र को मित्र तथा गुरु को सम मानता है। शारीरिक रोगों में शनि को वायु विकार, कंप, हड्डियों और दंत रोगों का कारक माना जाता है।
शनिदेव के जन्म के बारे में स्कंद-पुराण के काशीखंड में एक कथा मिलती जो कुछ इस प्रकार है।
राजा दक्ष की कन्या संज्ञा का विवाह सूर्यदेवता के साथ हुआ। सूर्यदेवता का तेज बहुत अधिक था जिसे लेकर संज्ञा अक्सर परेशान रहती थी। वह सोचा करती कि किसी तरह तपादि से सूर्यदेव की अग्नि को कम करना होगा। जैसे-तैसे दिन बीतते गये संज्ञा के गर्भ से वैवस्वत मनु, यमराज और यमुना तीन संतानों ने जन्म लिया।
संज्ञा अब भी सूर्यदेव के तेज से घबराती थी फिर एक दिन उन्होंने निर्णय लिया कि वे तपस्या कर सूर्यदेव के तेज को कम करेंगी लेकिन बच्चों के पालन और सूर्यदेव को इसकी भनक न लगे इसके लिये उन्होंने एक युक्ति लगाई उन्होंने अपने तप से अपनी हमशक्ल को पैदा किया जिसका नाम संवर्णा रखा। संज्ञा ने बच्चों और सूर्यदेव की जिम्मेदारी अपनी छाया संवर्णा को दी और कहा कि अब से मेरी जगह तुम सूर्यदेव की सेवा और बच्चों का लालन-पालन करते हुए नारी धर्म का पालन करोगी लेकिन यह राज सिर्फ मेरे और तुम्हारे बीच ही रहना चाहिये।
अब संज्ञा वहां से चलकर अपने पिता के घर पंहुची और अपनी परेशानी बताई तो पिता ने डांट-फटकार लगाते हुए उन्हें वापस भेज दिया लेकिन संज्ञा वापस न जाकर वन में चली गई और घोड़ी का रूप धारण कर तपस्या में लीन हो गई। उधर सूर्यदेव को जरा भी संदेह नहीं हुआ कि उनके साथ रहने वाली संज्ञा नहीं सुवर्णा है। संवर्णा अपने धर्म का पालन करती रही उसे छाया रूप होने के कारण उन्हें सूर्यदेव के तेज से भी कोई परेशानी नहीं हुई।
स्वर्णा की कठोर तपस्या से ज्येष्ठ मास की अमावस्या को शनि देव का जन्म हुआ। स्वर्णा ने शंकर जी की कठोर तपस्या की। तेज गर्मी व धूप के कारण माता के गर्भ में स्थित शनि का वर्ण काला हो गया। पर इस तप ने बालक शनि को अद्भुत व अपार शक्ति से युक्त कर दिया।
एक बार जब भगवान सूर्य पत्नी छाया से मिलने गए तब शनि ने उनके तेज के कारण अपने नेत्र बंद कर लिए। सूर्य ने अपनी दिव्य दृष्टि से इसे देखा और पाया कि उनका पुत्र तो काला है जो उनका नहीं हो सकता। सूर्य ने छाया से अपना यह संदेह व्यक्त भी किया। इस कारण शनि के मन में अपने पिता के प्रति शत्रु भाव पैदा हो गए। शनि के जन्म के बाद पिता ने कभी उनके साथ पुत्रवत प्रेम प्रदर्शित नहीं किया। इस पर शनि ने भगवान शिव की कठोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया।
जब भगवान शिव ने उनसे वरदान मांगने को कहा तो शनि ने कहा कि पिता सूर्य ने मेरी माता का अनादर कर उनपर अत्याचार किया है। मेरी माता हमेशा अपमानित व पराजित होती रहीं। इसलिए आप मुझे सूर्य से अधिक शक्तिशाली एवं पूज्य होने का वरदान दें। तब भगवान शंकर ने वर दिया कि तुम नौ ग्रहों में श्रेष्ठ स्थान पाने के साथ ही सर्वोच्च न्यायाधीश व दंडाधिकारी रहोगे। साधारण मानव तो क्या देवता, असुर, सिद्ध, विद्याधर, गंधर्व व नाग सभी तुम्हारे नाम से भयभीत होंगे।
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