हमारे देश भारत में अनेक देवी-देवताओं के मंदिर हैं जो किसी न किसी कारण से प्रसिद्ध हैं। उत्तराखंड में ऐसा ही एक मंदिर है जो मां चंद्रबदनी मंदिर के नाम से जाना जाता है। एक मान्यता के अनुसार आदि जगतगुरु शंकराचार्य ने इस शक्तिपीठ मंदिर की स्थापना प्राचीन समय में की थी। यहां पर दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं विशेषकर नवरात्रों में और जो भी यहां पर अपनी किसी मनोकामना को पूरी करवाने के लिए आता है तो उसकी मनोकामना ज़रूर पूरी होती है।
इस मंदिर की स्थापना की कथा मां सती से जुड़ी है। एक बार की बात है राजा दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया था। राजा दक्ष सती मां के पिता थे। इस यज्ञ में राजा ने सभी देवताओं, गंधर्व, ऋषि, आदि को बुलाया था परंतु उन्होंने भगवान शंकर को आमंत्रित नहीं किया था। मां सती बिना बुलाए उस यज्ञ में चली गई थी जबकि शिव जी ने उनको वहां जाने से मना किया था।
जब मां सती अपने पिता के घर पहुंची तो वहां पर किसी ने भी उनसे ठीक से बात नहीं की और उन्होंने जब अपने पिता से भगवान शंकर को ना बुलाने का कारण पूछा तो राजा दक्ष ने उनके लिए बहुत अपमानजनक शब्द कहे जिसके कारण सती को गुस्सा आ गया और वह क्रोध में वहां पर बने आग क कुंड में कूद गई। जब उनके आग में कूदने की खबर भगवान शंकर को पता चली तो वह वहां आए और उन्होंने उसी समय दक्ष का सिर काट दिया। उसके बाद उन्होंने सती का जला हुआ शरीर अपने कंधों पर रख लिया। उन्होंने वहां पर अब तांडव करना शुरू कर दिया था।
ऐसा कहा जाता है कि उस समय वहां पर सारे में प्रलय जैसी स्थिति हो गई थी। फिर भगवान विष्णु ने उनको शांत करने के लिए अपना अदृश्य सुदर्शन चक्र शिवजी के पीछे लगा दिया था। सुदर्शन चक्र की वजह से सती का शरीर कट कर गिरने लगा था और जिस जगह पर भी सती के अंग गिरे उनको शक्तिपीठ कहा गया। चंद्रकूट पर्वत पर सती का बदन यानी धड़ गिरा था जिसके कारण उस जगह का नाम चंद्रबदनी पड़ा ।
लोगों से सुना गया है कि एक बार किसी पुजारी ने अकेले में मूर्ति को देखने की कोशिश की थी। लेकिन वह पुजारी उनकी मूर्ति को नहीं देख सका था और वह अंधा हो गया था। कोई भी पुजारी यदि आंखें खोल कर इसकी तरफ देखने की कोशिश करता है तो उसकी आंखें अत्यधिक प्रकाश की वजह से बंद हो जाती हैं।
यह मंदिर बहुत अधिक प्राचीन है और लोगों का कहना है कि इसकी स्थापना आदि जगतगुरु शंकराचार्य ने श्री यंत्र से प्रभावित होकर की थी। इस शक्तिपीठ मंदिर में चंद्रबदनी की मूर्ति ना होकर केवल उनका श्री यंत्र है जिसकी पूजा की जाती है। यह मंदिर समुद्र तल से लगभग 8000 फीट की ऊंचाई पर बना हुआ है। इस मंदिर के आसपास का प्राकृतिक दृश्य काफी सुंदर और मनमोहक है। पक्षियों की चहचहाहट और चारों तरफ फैली हुई हरियाली तथा शांति किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है।
इस मंदिर के अंदर कोई भी मूर्त नहीं है बल्कि यहां पर श्री यंत्र है। श्री यंत्र में से काफी तीव्र प्रकाश निकलता है जिसको कोई भी इंसान नहीं देख सकता तथा देखने वाले की आंखें चुंधिया जाती हैं। यहां पर पुजारी भी इस श्री यंत्र पर अपनी आंखें बंद करके या आंखें नीचे करके कपड़ा डालते हैं। हर साल अप्रैल के महीने में यहां पर बहुत बड़ा मेला लगता है। इस मेले में हज़ारों भक्त तथा श्रद्धालु पैदल चलकर पहुंचते हैं। लोग दूर-दूर से अपनी मुराद पूरी करने के लिए यहां पर ख़ुद अपने पैरो पर चलकर आते हैं।
इस मंदिर में जो भी इंसान पूरे भक्ति भाव से अपनी मन्नत पूरी करवाने के लिए आता है तो मां जगदंबे उसको कभी भी उसको निराश नहीं करती। जब श्रद्धालु की मन्नत पूरी हो जाती है तो वह मां को फल, अगरबत्ती, चुन्नी, धूपबत्ती आदि का चढ़ावा समर्पित करता है।
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