हिंदू धर्म के अनुसार 16 संस्कारों का हमारे जीवन में बहुत ही महत्व माना गया है, इन्हीं 16 संस्कारों में से एक है जनेऊ धारण संस्कार या ‘यज्ञोपवीत संस्कार’ । यज्ञोपवीत =यज्ञ +उपवीत, अर्थात् जिसे यज्ञ करने का पूर्ण रूप से अधिकार हो । संस्कृत भाषा में जनेऊ को ‘यज्ञोपवीत’ कहा जाता है। यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण किये बिना किसी को वेद पाठ या गायत्री जप का अधिकार प्राप्त नहीं होता ।
जनेऊ सूत से बना पवित्र धागा होता है, जो ‘यज्ञोपवीत संस्कार’ के समय धारण कराया जाता है। । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य समाज में ‘यज्ञोपवित संस्कार’ परंपरा है। बालक की आयु 10-12 वर्ष का होने पर उसकी यज्ञोपवित की जाती है। प्राचीन काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिलता था। यह प्राचीन परंपरा न केवल धार्मिक लिहाज से, बल्कि वैज्ञानिक लिहाज से भी बहुत महत्व रखती है।
जनेऊ (यज्ञोपवीत) को ब्रह्मसूत्र, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध और बलबन्ध भी कहते हैं। वेदों में भी जनेऊ धारण करने की हिदायत दी गई है। इसे उपनयन संस्कार भी कहते हैं। ‘उपनयन’ का अर्थ है, पास या निकट ले जाना। जनेऊ धारण करने वाला व्यक्ति ब्रह्मा(परमात्मा) के प्रति समर्पित हो जाता है । जनेऊ धारण करने के बाद व्यक्ति को विशेष नियम आचरणों का पालन करना पड़ता है ।
तीन धागों वाला सूत से बना पवित्र धागा जनेऊ होता है । जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है, यानी इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।।
हिन्दू धर्म के अनुसार प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि वो जनेऊ धारण करे और उसके नियमों का पालन करना।
मुख्यता दो प्रकार के ही जनेऊ होते है, तीन धागे वाला तथा छः धागे वाला।
ब्रह्मचारी के लिए तीन धागे वाले जनेऊ का विधान है, विवाहित पुरुष को छह धागे वाले जनेऊ धारण करना चाहिए । जनेऊ के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं। आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने वाली लड़की भी जनेऊ धारण कर सकती है।
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