नमस्कार दोस्तों, आपने हमारी चिंता की अग्नी भस्मसात करे, उससे पहले यह जान ले यह लेख तो पढा ही होगा। आज हम कुछ अलग जानकारी लेने वाले है। जिससे आपको जीवन जीने में बहुत सहायता होने वाली है। आज के इस कलियुग हर व्यक्ती आपको किसीना किसी बात के लिये स्वार्थी जरूर दिखेगा। बहुत कम ही लोग होते है, जो निस्वार्थ जीवन जीते है।
ज्यादा दूर मत जाईये, आपके नजीक के ही लोगों की बात कर लिजीये। प्रत्येक व्यक्ती आज खुद को ही बडा करने में लगा है। हर एक परिवार सिर्फ अपने ही स्वार्थी इच्छाओं को पुरा करने में जुटा हुआ है। आज मनुष्य कोई कर्म भी करता है तो, वह किसी इच्छा हेतु या फिर किसी को नीचा दिखाने के लिये ही करता है।
जैसे की यदि कोई बडी चीज खरीदता है, तो हम कहते है की हम इससे भी बेहतर चीज खरीदेंगे। ऐसे लोग दिखावे से तो दिखा देते हैं की उन्हे ऐसी कोई इर्षा नही परंतू अंदर से वह लोग बडे ही चंचिले स्वभाव के होते हैं। फिर किसी विद्यार्थी का ही उदाहरण ले लिजिये, विद्यार्थी भी किसी ना किसी विद्यार्थी से आगे जाने की इच्छा से ही कर्म करता है। परंतु इस वजह से उन्हे कभी भी सुख प्राप्ती नही हो सकती। फलस्वरुप उन्हे सिर्फ और सिर्फ दुःख ही मिलता है। इससे आपको यह तो समझ ही गया होगा की किसी से इर्षा करना गलत ही है, फिर वो किसी भी चीज के बारे में क्यों न हो।
ईश्वर को अर्पित बुद्धि से किया गया निष्काम कर्म अन्त:करण कि शुद्धि अर्थात सत्वशुद्धि का कारण है और वह मोक्षकारक ज्ञानयोग का उपाय-साधन भी माना गया है।आसक्ति रहित होकर कर्तव्य-नित्यकर्मों का सदा भली भांति आचरण किया जाना चाहिए। क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने वाला व्यक्ती अर्थात ईश्वरार्थ कर्म करता हुआ जीव, अन्त:करण की शुद्धी द्वारा मोक्षरुप परमपद भी पा लेता है|गीता में जैसे बताया गया है की मनुष्य तीन तरह के गुनों में बंधा हुआ रहता है। वह तीन गुण यानि सत्व, रज और तम। इन तीन गुनों की वजह से ही मनुष्य कर्म बंधन में जकडा हुआ जाता है। इन तीन गुनों को आप एक तरह से मनुष्य का स्वभाव ही समझ लिजिये। कर्म किए बिना तो इस संसार में कोई भी जीव नही रह सकता।
ज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥
यदि आप कर्म नहीं करते हैं, तो आप जीवन कैसे बनाएंगे? आसक्ति से किया गया कर्म मनुष्य को कर्मबन्धन से बांध देता है। इसलिए हे अर्जुन, कर्म करो, लेकिन अनासक्त होकर करो।
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥
बाद में श्रीकृष्ण भगवान कहते हैं ,
अतः कर्मफल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से परब्रह्म की प्राप्ति होती है।
मनुष्य के हाथ में कर्म फल है ही नही। मनुष्य को सिर्फ कर्म करने हेतू अधिकार है परंतु उससे प्राप्त होने वाले फल की इच्छा वह नही कर सकते। परंतु इससे विपरीत हम क्या करते है? किसी कामना को पूर्ण करने हेतू हम कर्म करते रहते हैं। और हमे बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पडता है। अगर वह कामना पूर्ण न हो पाए तो मनुष्य के भीतर क्रोध की उत्पत्ती होती है। इससे मनुष्य की मति भ्रमिष्ट होती है। इस वजह से मनुष्य दुःखी ही होता है। और यदि वह मन की इर्षा पूर्ण हो भी जाती है तो वह सुख ज्यादा समय तक नहीं टिक पाता। अनासक्त होकर कर्म करें फल की इच्छा ना करें। भगवान की कर्म फल व्यवस्था अकाट्य है, इसलिए फल की चिंता बिलकुल ना करें। फल तो मिलेगा ही।
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