हिंदू मान्यताओं के अनुसार ऐसा माना जाता है और इसकी पुष्टि करने के लिए कई ऐसे उदाहरण भी बताए गए हैं जिसमें पिता द्वारा पुत्र का हार जाना या पिता के लिए पुत्र द्वारा त्याग करने को महिमामंडित किया जाता है। पिता से हारने या पिता के लिए त्याग करने वाले पुत्र की प्रशंसा होती है और पुत्र को एक आज्ञाकारी सुपुत्र कहा जाता है।
चाहे वो रामायण में पिता दशरथ के लिए पुत्र राम का त्याग और 14 साल का वनवास स्वीकार करना हो या फिर महाभारत में भीष्म द्वारा पिता के लिए आजीवन विवाह न करने का संकल्प। हिंदू मान्यता में आज्ञाकारी पुत्र की सराहना की गयी है। ऐसा ही एक दिलचस्प उदहारण और है जो महाभारत से जुड़ा है। हम भीष्म की बात नहीं, उनसे पहले की बात कर रहे हैं। आइये जानें क्या थी वो घटना।
श्रीमद्भागवत में नवम स्कन्ध के उन्नीसवें अध्याय में ‘ययाति का गृह त्याग’ के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। अठारहवां अध्याय ‘ययाति चरित्र’ के बारे में है। यहां ययाति का पिता के लिए त्याग और पिता द्वारा उसे वरदान देने का वर्णन है जिस परंपरा को गंगा पुत्र भीष्म ने भी अनुसरण किया था।
जब देव राज इंद्र ने वृत्रासुर नामक राक्षस का वध किया तो उनके ऊपर ब्रह्महत्या का पाप लग गया। ब्रह्महत्या का प्रायश्चित करने के लिए इंद्र एक हजार वर्षों के लिए स्वर्ग छोड़ कर चले गए। इंद्रासन खाली नहीं रह सकता था इसलिए पृथ्वी के प्रतापी राजा नहुष को इंद्रासन पर बैठा दिया गया। नहुष के छः पुत्र हुए जिसमें बड़े पुत्र का नाम याति और दूसरे पुत्र का नाम ययाति था।
नहुष के बड़े पुत्र याति ने वैराग्य धारण कर लिया था इसलिए राजा नहुष ने अपने दूसरे पुत्र ययाति को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। ययाति ने अपने छोटे भाईयों को चारों दिशाओं में राज्य करने के लिए भेज दिया और स्वयं पृथ्वी के सम्राट बन गए। इन्होंने दैत्यों के गुरु शुक्रायार्च की पुत्री देवयानी से विवाह कर लिया। शुक्राचार्य के शिष्य एवं दैत्यों के राजा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा एक दासी की तरह देवयानी के साथ भेज दी गयी।
शुक्राचार्य ने ययाति को आदेश दिया था की वो शर्मिष्ठा के साथ यौन सम्बन्ध न बनाए और कोई संतान उत्पत्ति न करें। किन्तु शर्मिष्ठा की सुन्दरता देख एक दिन ययाति विचलित हो उठे और इन्होंने सम्बन्ध बना लिया। देवयानी से दो पुत्र और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र हुए। जब शुक्राचार्य को ये बात मालूम चली तो उन्होंने ययाति को बूढ़ा और शुक्र विहीन हो जाने का श्राप दे दिया। माफ़ी मांगने पर शुक्राचार्य ने कहा कि अगर कोई अपनी जवानी तुम्हें देकर तुमसे बुढ़ापा ले ले तो तुम भोग विलास कर पाओगे।
ययाति अभी और भोग विलास करना चाहते थे पर श्राप के कारण बूढ़े हो चुके थे। इसलिए इन्होंने अपने पांचों पुत्रों को बुलाया और पूछा कि क्या कोई उन्हें अपना यौवन दे सकता है? सबने मना कर दिया। ययाति दुखी हो गए। इनका दुःख इनके पुत्र पुरु से न देखा गया। इन्होंने अपने पिता के लिए अपना यौवन त्याग दिया और बदले में पिता का बुढ़ापा ले लिया।
पुरु के इस त्याग के बाद ययाति कई सौ साल तक भोग विलास का आनंद उठाते रहे। एक दिन अचानक उन्हें अनुभव हुआ कि उन्होंने अपने पुत्र के साथ अन्याय कर दिया है। उन्होंने पुरु को उसका यौवन लौटा दिया और अपना उत्तराधिकारी घोषित करके सम्राट नियुक्त कर दिया। पुरु को पितृभक्ति का फल मिला और इन्हें एक आज्ञाकारी सुपुत्र के रूप में ख्याति मिली। इन्हीं पुरु से हस्तिनापुर के कौरव और पांडवो का जन्म हुआ।
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